ज़ियाउल हक़ क़ासमी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ज़ियाउल हक़ क़ासमी
नाम | ज़ियाउल हक़ क़ासमी |
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अंग्रेज़ी नाम | Zia-ul-Haq Qasmi |
शायर-ए-आज़म
लाटरी
घर से बाहर
बिन-बुलाया मेहमान
भारी पैर
बंगला और बीवी
वो भरी बज़्म में कहती है मुझे अंकल-जी
सर-ए-बज़्म मुझ को उठा दिया मुझे मार मार लिटा दिया
मुझे अपनी बीवी पे फ़ख़्र है मुझे अपने साले पे नाज़ है
मिरे रोब में तो वो आ गया मिरे सामने तो वो झुक गया
मैं जिसे हीर समझता था वो राँझा निकला
सफ़र हो रेल-गाड़ी का तो छके छूट जाते हैं
माशूक़ जो ठिगना है तो आशिक़ भी है नाटा
मैं शिकार हूँ किसी और का मुझे मारता कोई और है
कूचा-ए-यार में मैं ने जो जबीं-साई की
जब भी तुझे देखा किसी बोहरान में देखा
दिल के ज़ख़्मों पे वो मरहम जो लगाना चाहे