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तुलूअ' - ज़िया जालंधरी कविता - Darsaal

तुलूअ'

किसे यक़ीं था कि पलटेगी रात की काया

कटी तो रात मगर एक एक पल गिन गिन

उफ़ुक़ पे आई भी थी सुर्ख़ि-ए-सहर लेकिन

सहर के साथ ही अब्र-ए-सियाह भी आया

सहर के साथ ही हद्द-ए-निगाह तक छाया

ये क्या ग़ज़ब है कि अब तीरा-तर है रात से दिन

ज़माना शोख़ शुआओ उदास है तुम बिन

बस इक झलक कि उठे सर से ये घना साया

ये डर भी है कि शुआएँ न जगमगा उट्ठें

कोई शुआ'अ जो उठी भी ले के अंगड़ाई

और उठ के आलम-ए-तारीक में वो दर आई

तू आ के देखेगी है नूर-ओ-बे-बसर आँखें

नहीं है जन के लिए फ़र्क़ नूर-ओ-ज़ुल्मत में

कि अब हैं ख़्वाब-ए-अदम में सहर के सौदाई

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