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इम्कान - ज़िया जालंधरी कविता - Darsaal

इम्कान

मिरे लफ़्ज़ मेरे लहू की लौ

मिरे दिल की लय जिसे नूर-ए-नय की तलाश है

मिरे अश्क मेरे वो हर्फ़ हैं जो मिरे लबों पे न आ सके

मैं अगर कहूँ भी तो क्या कहूँ

कि हनूज़ मेरी ज़बाँ में है वही ना-कुशूदा-गिरह कि थी

तू सुने तो अब्र भी नग़्मा है

तू सुने तो मौज-ए-हवा भी राग की तान है

तू सुने तो पात भी फूल भी किसी गुप्त गीत के बोल हैं

गुल-ओ-यासमन हों कि मेहर-ओ-माह

हर इक अपनी सौत-ओ-सदा में कामिल-ओ-ताम है

मिरा लफ़्ज़ नाक़िस-ओ-ख़ाम है

रहा ना-तमाम जो कह सका

जो न कह सका वही बात अस्ल-ए-कलाम है

तू सुने तो कोई अजब नहीं

कि मिरी नवा का हुनर खुले

तू सुने तो कोई अजब नहीं

कि सुख़न का सातवाँ दर खुले

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