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हाबील - ज़िया जालंधरी कविता - Darsaal

हाबील

अव्वलीं ज़ाइक़ा-ए-ख़ूँ से थी लब-तल्ख़ वो ख़ाक

जिस पे मैं टूटी हुई शाख़ के मानिंद गिरा

किन शरारों की दहक दीदा-ए-क़ाबील में थी

वो हसद था कि हवस तैश कि नफ़रत क्या था

और फिर मेरे बदन मेरे लहू में उतरा

अव्वलीं बे-बसी-ए-कर्ब-ए-फ़ना का इदराक

बुझ गई शम-ए-नज़र मिट गए आवाज़ के नक़्श

बू-ए-गुल, जू-ए-सबा, नज्म-ए-सहर कुछ न रहा

लर्ज़िश-ए-मौज-ए-तनफ़्फ़ुस के करिश्मे थे तमाम

रू-ए-जानाँ ग़म-ए-जाँ दीदा-ए-तर कुछ न रहा

नस्ल-दर-नस्ल यूँही मेरे लहू का प्यासा

नार-ए-नमरूद भी वो नख़वत-ए-फ़िरऔन भी वो

जाम-ए-ज़हराब भी वो तेशा भी वो दार भी वो

ख़ंजर-ए-शिम्र भी वो तरकश-ए-चंगेज़ भी वो

एशिया में कभी अफ़्रीक़ा में ख़ूँ-रेज़ भी वो

और क़ाबील से इरशाद किया था तू ने

ख़ून-ए-हाबील की इन ज़र्रों से बू आती है

फैल कर अब वही बू सारे जहाँ पर है मुहीत

क्या ये बू ता-ब-अबद मेरा मुक़द्दर होगी

क्या तिरे इज़्न से क़ाबील की ख़ू क़ाएम है

क्या ये ख़ू ता-ब-अबद मेरा मुक़द्दर होगी

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