दिखावा
शिकस्ता दीवार-ओ-दर पे सब्ज़ा बहार के राग अलापता है
सियाह दर्ज़ों में घास के ज़र्द नीम-जाँ फूल हँस रहे हैं
मैं अपनी वीराँ ख़िज़ाँ-ज़दा ज़िंदगी से बेगाना हो गया हूँ
थिरक रही है फ़सुर्दा होंटों पे इक सकूँ-बार मुस्कुराहट
जो मुझ को मुझ से छुपा रही है मैं हँस रहा हूँ मैं खो गया हूँ
किसी को हमवार सतह की तह में तुंद लहरों का क्या पता है
(1134) Peoples Rate This