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अबुल-हौल - ज़िया जालंधरी कविता - Darsaal

अबुल-हौल

जहान-ए-रेग के ख़्वाब-ए-गिराँ से आज तो जाग

हज़ारों क़ाफ़िले आते रहे गुज़रते रहे

कोई जगा न सका तुझ को तुझ से कौन कहे

वो ज़ीस्त मौत है जिस में कोई लगन हो न लाग

तड़प उठे तिरे होंटों पे काश अब कोई राग

जो तेरे दीदा-ए-संगीं से दर्द बन के बहे

ये तेरी तीरा-शबी बिजलियों के नाज़ सहे

यूँही सुलगती रहे तेरे दिल में ज़ीस्त की आग

मगर नहीं, तू अगर मेरा राज़-दाँ होता

तिरे लबों पे दहक उठती कोई प्यार की बात

तो आज दहर के सीने पे तू कहाँ होता

तिरे सुकूँ को कभी छू सका न वक़्त का हात

ख़ुद अपनी आग ही में जल-बुझी है मेरी हयात

वगरना तेरी तरह मैं भी जावेदाँ होता

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