तिरी निगह से इसे भी गुमाँ हुआ कि मैं हूँ
तिरी निगह से इसे भी गुमाँ हुआ कि मैं हूँ
वगर्ना दिल तो मिरा मानता न था कि मैं हूँ
अजीब लम्हा वो दीदार-ए-हुस्न-ए-यार का था
उस एक पल की तजल्ली में ये खुला कि मैं हूँ
न जाने बे-ख़बरी के वो किस मक़ाम पे था
नज़र उठाता तो हर गुल पुकारता कि मैं हूँ
तिरे जमाल की कुछ रौशनी सी पड़ती है
बता रहा है मुझे रंग-ए-आइना कि मैं हूँ
जिसे भुला के ये दिल मुतमइन था मुद्दत से
कल उस के ज़िक्र पे इक अहद बोल उठा कि मैं हूँ
पर-ए-ज़माना तो परवाज़-ए-नूर से भी है तेज़
कहाँ है कौन था जिस ने अभी कहा कि मैं हूँ
कहाँ पे सरहद-ए-नाबूद-ओ-बूद मिलती है
सुबूत हो कि न हो ए'तिबार क्या कि मैं हूँ
हयात ख़ुद है दहान-ए-नहंग-ला-यानी
जो है अदम का मुसाफ़िर है मैं चला कि मैं हूँ
न रफ़्तगाँ हैं न अब याद-ए-रफ़्तगाँ बाक़ी
मैं क्या हूँ जुज़ रम-ए-यक-मौजा-ए-फ़ना कि मैं हूँ
मुझ ऐसे ज़र्रों का होना न होना एक सा है
बगूले इन से उठे तो पता चला कि मैं हूँ
खुला पड़ा है सर-ए-राह बेहिस-ओ-हरकत
जो हाथ कल तक उठा चीख़ता रहा कि मैं हूँ
अभी तरीक़-ए-तहम्मुल नहीं मिज़ाजों में
अभी फ़क़ीहों में हंगामा है बपा कि मैं हूँ
कहीं कहीं अभी तौक़ीर-ए-लफ़्ज़ बाक़ी है
सुख़न सुनाई दिया हर्फ़-ए-दर्द का कि मैं हूँ
अजीब आलम-ए-हू था 'ज़िया' जब आख़िर-ए-शब
किसी को दिल ने ये कहते हुए सुना कि मैं हूँ
(1383) Peoples Rate This