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तिरी निगह से इसे भी गुमाँ हुआ कि मैं हूँ - ज़िया जालंधरी कविता - Darsaal

तिरी निगह से इसे भी गुमाँ हुआ कि मैं हूँ

तिरी निगह से इसे भी गुमाँ हुआ कि मैं हूँ

वगर्ना दिल तो मिरा मानता न था कि मैं हूँ

अजीब लम्हा वो दीदार-ए-हुस्न-ए-यार का था

उस एक पल की तजल्ली में ये खुला कि मैं हूँ

न जाने बे-ख़बरी के वो किस मक़ाम पे था

नज़र उठाता तो हर गुल पुकारता कि मैं हूँ

तिरे जमाल की कुछ रौशनी सी पड़ती है

बता रहा है मुझे रंग-ए-आइना कि मैं हूँ

जिसे भुला के ये दिल मुतमइन था मुद्दत से

कल उस के ज़िक्र पे इक अहद बोल उठा कि मैं हूँ

पर-ए-ज़माना तो परवाज़-ए-नूर से भी है तेज़

कहाँ है कौन था जिस ने अभी कहा कि मैं हूँ

कहाँ पे सरहद-ए-नाबूद-ओ-बूद मिलती है

सुबूत हो कि न हो ए'तिबार क्या कि मैं हूँ

हयात ख़ुद है दहान-ए-नहंग-ला-यानी

जो है अदम का मुसाफ़िर है मैं चला कि मैं हूँ

न रफ़्तगाँ हैं न अब याद-ए-रफ़्तगाँ बाक़ी

मैं क्या हूँ जुज़ रम-ए-यक-मौजा-ए-फ़ना कि मैं हूँ

मुझ ऐसे ज़र्रों का होना न होना एक सा है

बगूले इन से उठे तो पता चला कि मैं हूँ

खुला पड़ा है सर-ए-राह बेहिस-ओ-हरकत

जो हाथ कल तक उठा चीख़ता रहा कि मैं हूँ

अभी तरीक़-ए-तहम्मुल नहीं मिज़ाजों में

अभी फ़क़ीहों में हंगामा है बपा कि मैं हूँ

कहीं कहीं अभी तौक़ीर-ए-लफ़्ज़ बाक़ी है

सुख़न सुनाई दिया हर्फ़-ए-दर्द का कि मैं हूँ

अजीब आलम-ए-हू था 'ज़िया' जब आख़िर-ए-शब

किसी को दिल ने ये कहते हुए सुना कि मैं हूँ

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