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शम-ए-हक़ शोबदा-ए-हर्फ़ दिखा कर ले जाए - ज़िया जालंधरी कविता - Darsaal

शम-ए-हक़ शोबदा-ए-हर्फ़ दिखा कर ले जाए

शम-ए-हक़ शोबदा-ए-हर्फ़ दिखा कर ले जाए

कहीं तुझ को ही न तुझ से कोई आ कर ले जाए

पहने फिरते हैं जो पैराहन-ए-सुक़रात-ओ-मसीह

उन का बहरूप न दिल तेरा लुभा कर ले जाए

तू चढ़ावा तो नहीं है कि कोई सेहर-मक़ाल

सू-ए-मक़्तल तुझे लफ़्ज़ों में सजा कर ले जाए

तू कोई सूखा हुआ पत्ता नहीं है कि जिसे

जिस तरफ़ मौज-ए-हवा चाहे उड़ा कर ले जाए

तेरी अक़दार पर-ए-काह नहीं हैं कि जूँही

कोई लहर उट्ठे उन्हें साथ बहा कर ले जाए

लोग तो ताक में हैं ऐसा न हो कोई तुझे

ख़ुद तिरे ख़ौफ़ की ज़ंजीर पिन्हा कर ले जाए

जा-ब-जा शोला-बयाँ चर्ब-ज़बाँ ताक में हैं

कोई तुझ को भी न बातों में लगा कर ले जाए

लफ़्ज़ तीरों की तरह वाज़ सिनाँ के मानिंद

दिल-ए-वहशी को कहाँ कोई बचा कर ले जाए

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