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मुंजमिद होंटों पे है यख़ की तरह हर्फ़-ए-जुनूँ - ज़िया जालंधरी कविता - Darsaal

मुंजमिद होंटों पे है यख़ की तरह हर्फ़-ए-जुनूँ

मुंजमिद होंटों पे है यख़ की तरह हर्फ़-ए-जुनूँ

सर किसी सील-ज़दा शाख़ के मानिंद निगूँ

कहाँ सुरमा-नफ़स अल्फ़ाज़ कहाँ सोज़-ए-दरूँ

लाला-ए-दश्त-ए-ज़मिस्ताँ है मैं जो बात कहूँ

मैं कहाँ पहुँचा कि हर बुत जिसे पूजा अब तक

है शिकस्ता सर-ए-ख़ाक और मैं शिकस्ता तो हूँ

रहम कर ख़्वाब-ए-तमन्ना पे निगाह-ए-निगराँ

टूट कर चारों तरफ़ बिखरे पड़े हैं अफ़्सूँ

ख़िश्त-कोबी में किसे फ़ुर्सत-ए-ख़्वाब-ए-ख़ूबाँ

ज़िंदा रहने के तक़ाज़ों ने किया ज़ीस्त का ख़ूँ

कितने अक़दार के ऐवान ज़मीं-बोस हुए

आगही राख का इक ढेर हुई जाती है क्यूँ

कितने अरमान ज़मिस्ताँ-ज़दा शाख़ों की तरह

हाथ फैलाए हुए तकते हैं सू-ए-गर्दूं

शब अजब-सोख़्ता-सामान मुसाफ़िर आए

जिस्म आग़श्ता-ब-ख़ूँ चेहरे मलूल-ओ-महज़ूँ

बोले ऐ अजनबी ऐ सादा तमन्ना हमें देख

हम भी रखते थे कभी आरज़ूएँ गूना-गूँ

और फिर हम पे खुला वक़्त की रफ़्तार का राज़

अब कोई रंग कोई रूप नहीं वज्ह-ए-सुकूँ

बुझ गईं आरज़ूएँ शाम के बादल की तरह

गुलशन-ओ-शहर हुए बर्फ़ की तह में मदफ़ूँ

जा-ब-जा हौसले ताराज हुए दिल टूटे

पै-ब-पै हम ने सहे सर्द हवा के शब-ख़ूँ

ज़िंदगी महज़ शिकस्तों का इक अम्बार-ए-गिराँ

अब इन आँखों में नहीं कोई तिलिस्म-ए-फ़यकूँ

हम तो ऐ अजनबी मेहमान हैं कोई दम के

दम-ब-दम मौज-ए-फ़ना कहती है मैं हूँ मैं हूँ

सुब्ह-दम सोख़्ता-सामान मुसाफ़िर भी गए

फिर वही हम वही तन्हाई वही हाल-ए-ज़बूँ

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