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क्या सरोकार अब किसी से मुझे - ज़िया जालंधरी कविता - Darsaal

क्या सरोकार अब किसी से मुझे

क्या सरोकार अब किसी से मुझे

वास्ता था तो था तुझी से मुझे

बे-हिसी का भी अब नहीं एहसास

क्या हुआ तेरी बे-रुख़ी से मुझे

मौत की आरज़ू भी कर देखो

क्या उम्मीदें थीं ज़िंदगी से मुझे

फिर किसी पर न ए'तिबार आए

यूँ उतारो न अपने जी से मुझे

तेरा ग़म भी न हो तो क्या जीना

कुछ तसल्ली है दर्द ही से मुझे

कितना पुरकार हो गया हूँ कि था

वास्ता तेरी सादगी से मुझे

कर गए किस क़दर तबाह 'ज़िया'

दुश्मन अंदाज़-ए-दोस्ती से मुझे

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