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कितने इम्काँ थे जो ख़्वाबों के सहारे देखे - ज़िया जालंधरी कविता - Darsaal

कितने इम्काँ थे जो ख़्वाबों के सहारे देखे

कितने इम्काँ थे जो ख़्वाबों के सहारे देखे

मावरा थे जो नज़र से वो नज़ारे देखे

पर्दे उठते गए आँखों से तो रफ़्ता रफ़्ता

बर्ग-ए-गुल बर्फ़ में पत्थर में शरारे देखे

दिल पे उस वक़्त खुला हौसला-ए-ग़म का जमाल

अपने हर रंग में जब रूप तुम्हारे देखे

आसरे जाते रहे आस अभी बाक़ी है

पौ भी फूटेगी जहाँ डूबते तारे देखे

दिल को ख़ूँ करने की हसरत हो उसे भी शायद

साहब-ए-सादा अगर रंग हमारे देखे

ख़ूब-ओ-ना-ख़ूब में क्या फ़र्क़ करें हम कि यहाँ

जब हवा पलटी तो मुड़ते हुए धारे देखे

मुझे इस बज़्म में कहना तो बहुत कुछ था 'ज़िया'

बुझ गए लफ़्ज़ जब आँखों के इशारे देखे

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