जी रहा हूँ प क्या यूँही जीता रहूँ
जी रहा हूँ प क्या यूँही जीता रहूँ
मैं न तेरी तड़प हूँ न अपना सुक
अब तो सरमा की शब बन के ठिठुरे है ख़ूँ
और कब तक तुम्हारी तमन्ना करूँ
तुम को चाहा कि थी नर्गिसियत फ़ुज़ूँ
अपना ख़्वाहाँ तुम्हारी विसातत से हूँ
ऐसे रूठे थे लेकिन मिले हैं तो यूँ
चाहता हूँ कि उन से न कुछ भी कहूँ
हिज्र जाँ का ज़ियाँ वस्ल मर्ग-ए-जुनूँ
जीते रहने का इम्कान यूँ है न यूँ
थाह इस दिल की देखें प देखें तो क्यूँ
देखा जाएगा क्या अपने ख़्वाबों का ख़ूँ
फ़िक्र-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ ख़ाक-आलूदा हूँ
मैं कि था ताइर-ए-वुसअत-ए-नील-गूँ
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