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फ़ज़ाएँ इस क़दर बे-कल रही हैं - ज़िया जालंधरी कविता - Darsaal

फ़ज़ाएँ इस क़दर बे-कल रही हैं

फ़ज़ाएँ इस क़दर बे-कल रही हैं

ये आँखें रात भर जल-थल रही हैं

दबे पाँव मिरी तन्हाइयों में

हवाएँ ख़्वाब बन कर चल रही हैं

सहर-दम सोहबत-ए-रफ़्ता की यादें

मिरे पहलू में आँखें मल रही हैं

तिरा ग़म काकुलें खोले हुए है

मिरे सीने में शामें ढल रही हैं

अँधेरों में कमी क्या होगी लेकिन

ये शमएँ शाम ही से जल रही हैं

'ज़िया' इन साअतों में खो गए हम

खुली आँखों से जो ओझल रही हैं

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