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अपने अहवाल पे हम आप थे हैराँ बाबा - ज़िया जालंधरी कविता - Darsaal

अपने अहवाल पे हम आप थे हैराँ बाबा

अपने अहवाल पे हम आप थे हैराँ बाबा

आँख दरिया थी मगर दिल था बयाबाँ बाबा

ये वो आँसू हैं जो अंदर की तरफ़ गिरते हैं

हों भी तो हम नज़र आते नहीं गिर्यां बाबा

इस क़दर सदमा है क्यूँ एक दिल-ए-वीराँ पर

शहर के शहर यहाँ हो गए वीराँ बाबा

ये शब ओ रोज़ के हंगामों से सहमे हुए लोग

रहते हैं मौज-ए-सबा से भी हिरासाँ बाबा

ऊँची दीवारों से बाहर निकल आए तो खुला

हम ने सीनों में बना रक्खे हैं ज़िंदाँ बाबा

ख़ुश-गुमाँ हो के न बैठ इन दर-ओ-दीवार से पूछ

अहल-ए-ख़ाना भी हैं कुछ रोज़ के मेहमाँ बाबा

यख़ हवाओं से मुझे आती है ख़ुशबू-ए-बहार

शोला-ए-गुल की अमीं है ये ज़मिस्ताँ बाबा

गर्दबाद आएँ कि गिर्दाब, बयाबाँ हो कि बहर

ज़िंदगी होती है आप-अपनी निगहबाँ बाबा

गई रुत लौट भी आती है 'ज़िया' हौसला रख

हम ने देखी हैं सियह शाख़ों पे कलियाँ बाबा

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