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यूँ हसरतों की गर्द में था दिल अटा हुआ - ज़िया फ़तेहाबादी कविता - Darsaal

यूँ हसरतों की गर्द में था दिल अटा हुआ

यूँ हसरतों की गर्द में था दिल अटा हुआ

जैसे दरख़्त से कोई पत्ता गिरा हुआ

हो ही गया है नब्ज़-शनास-ए-ग़म-ए-जहाँ

सीने में इश्क़ के मिरा दिल काँपता हुआ

मिलता सुराग़-ए-ख़ाक मुझे मेरे साए का

हर सम्त ज़ुल्मतों का था जंगल उगा हुआ

कल रात ख़्वाब में जो मुक़ाबिल था आइना

मेरा ही क़द मुझे नज़र आया बढ़ा हुआ

जाने भी दो वो चाँद नहीं होगा कोई और

पामाल आदमी जो हुआ चाँद क्या हुआ

बाहर के शोर-ओ-ग़ुल ही से शायद वो बोल उठे

बैठा है कब से चुप कोई अंदर छुपा हुआ

पंछी उड़ा तो ख़त्म भी हो जाएगा 'ज़िया'

साँसों के आने-जाने का ताँता बँधा हुआ

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