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तू ने नज़रों को बचा कर इस तरह देखा मुझे - ज़िया फ़तेहाबादी कविता - Darsaal

तू ने नज़रों को बचा कर इस तरह देखा मुझे

तू ने नज़रों को बचा कर इस तरह देखा मुझे

क्यूँ न कर जाता भरी महफ़िल में दिल तन्हा मुझे

शाख़-दर-शाख़ अब कोई ढूँडा करे पत्ता मुझे

मैं तो ख़ुद टूटा हूँ आँधी ने नहीं तोड़ा मुझे

लग़्ज़िश-ए-पा ने दिया हर राह में धोका मुझे

ता-दर-ए-मंज़िल तू ही ऐ जज़्ब-ए-दिल पहुँचा मुझे

सूरत-ए-आईना हैरत से वो तकता रह गया

आइना-ख़ाने में जिस ने ग़ौर से देखा मुझे

मार ही डालेगी इक दिन कारोबार-ए-ज़ीस्त में

तंग-दामानी तिरी ऐ वुसअत-ए-दुनिया मुझे

उम्र-भर मिलती रही तेरी अदालत से न पूछ

मेरी ना-कर्दा-गुनाही की सज़ा क्या क्या मुझे

बर्ग-ए-गुल पर रक़्स-ए-शबनम का ये मंज़र ऐ 'ज़िया'

अब तो आता है नज़र हर क़तरे में दरिया मुझे

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