फ़रिश्ते इम्तिहान-ए-बंदगी में हम से कम निकले
फ़रिश्ते इम्तिहान-ए-बंदगी में हम से कम निकले
मगर इक जुर्म की पादाश में जन्नत से हम निकले
ग़म-ए-दुनिया-ओ-दीं उन को न फ़िक्र-ए-नेक-ओ-बद उन को
मोहब्बत करने वाले बे-नियाज़-ए-बेश-ओ-कम निकले
ग़रज़ का'बे से थी जिन को न था मतलब कलीसा से
हद-ए-दैर-ओ-हरम से भी वो आगे दो-क़दम निकले
सहर की मंज़िल-ए-रौशन पे जा पहुँचे वो दीवाने
शब-ए-तारीक में जो नूर का ले कर अलम निकले
मह-ओ-ख़ुर्शीद बन कर आसमानों पर हुए रौशन
दो आँसू वो मिरी आँखों से जो शाम-ए-अलम निकले
सुकूत-ए-शब में हम ने एक रंगीं ख़्वाब देखा था
मसर्रत जावेदाँ होगी अगर ता'बीर-ए-ग़म निकले
न मिलती हों शराब-ए-ज़िंदगी की तल्ख़ियाँ जिन में
सुना है वो 'ज़िया' के दिल से ऐसे शेर कम निकले
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