अपने होने का हर इक लम्हा पता देती हुई
अपने होने का हर इक लम्हा पता देती हुई
याद हैं मुझ को वो दो आँखें सदा देती हुई
उम्र-भर की हसरतें लादे थकी-मांदी हयात
जा रही है जाने किस किस को दुआ देती हुई
दिल का हर इक हुक्म सर-आँखों पे लेकिन क्या करें
ये जो है इक अक़्ल अपना फ़ैसला देती हुई
देखते ही देखते उड़ने लगी बस्ती में ख़ाक
इक ख़बर आई थी शोलों को हवा देती हुई
उम्र-भर की जुस्तुजू का है यही हासिल 'ज़िया'
एक दीवार-ए-तहय्युर आसरा देती हुई
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