ये ख़ाल-ओ-ख़द मिरे अपने
हर एक जिस्म मिरा है, हर एक जान मिरी
ये ख़ाल-ओ-ख़द मिरे अपने, ये आन-बान मिरी
सितम तो ये है कि मज़लूम मैं हूँ ज़ालिम मैं
हर एक ज़ख़्म मुझी से हिसाब माँगेगा
हर एक दाग़ मिरी आस्तीं से झाँकेगा
हज़ार-हा मिरी पेशानियों के चाँद बुझे
हज़ार-हा मिरे लब हम-कनार-ए-ज़हर हुए
हज़ार-हा मिरे जिस्मों की डालियाँ टूटीं
हज़ार-हा मिरी आँखों की मिशअलें डूबीं
जहाँ पे आग लगी है, वहाँ खिलौने थे
जहाँ पे ख़ाक उड़ी है, वहाँ पे झूले थे
जहाँ पे सर्द हैं सीने वहाँ पे चौखट थी
जहाँ पे बंद हैं आँखें वहाँ दरीचे थे
मैं इस धुएँ में कहाँ अपनी लाश को ढूँडूँ
मैं इस हुजूम में कैसे शुमार-ए-ज़ख़्म करूँ
सितम तो ये है कि मज़लूम मैं हूँ, ज़ालिम मैं
हर एक ज़ख़्म मुझी से हिसाब माँगेगा!
हर एक दाग़ मिरी आस्तीं से झाँकेगा
(1193) Peoples Rate This