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वो किताब - ज़ेहरा निगाह कविता - Darsaal

वो किताब

मिरी ज़िंदगी की लिखी हुई

मिरे ताक़-ए-दिल पे सजी हुई

वो किताब अब भी है मुंतज़िर

जिसे मैं कभी नहीं पढ़ सकी

वो तमाम बाब सभी वरक़

हैं अभी तलक भी जुड़े हुए

मिरा अहद-ए-दीद भी आज तक

उन्हें वो जुदाई न दे सका

जो हर इक किताब की रूह है

मुझे ख़ौफ़ है कि किताब में

मिरे रोज़-ओ-शब की अज़िय्यतें

वो नदामतें वो मलामतें

किसी हाशिए पे रक़म न हों

मैं फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-बरतरी

मैं असीर-ए-हल्क़ा-ए-बुज़-दिली

वो किताब कैसे पढ़ूँगी मैं?

(1999) Peoples Rate This

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