वो किताब
मिरी ज़िंदगी की लिखी हुई
मिरे ताक़-ए-दिल पे सजी हुई
वो किताब अब भी है मुंतज़िर
जिसे मैं कभी नहीं पढ़ सकी
वो तमाम बाब सभी वरक़
हैं अभी तलक भी जुड़े हुए
मिरा अहद-ए-दीद भी आज तक
उन्हें वो जुदाई न दे सका
जो हर इक किताब की रूह है
मुझे ख़ौफ़ है कि किताब में
मिरे रोज़-ओ-शब की अज़िय्यतें
वो नदामतें वो मलामतें
किसी हाशिए पे रक़म न हों
मैं फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-बरतरी
मैं असीर-ए-हल्क़ा-ए-बुज़-दिली
वो किताब कैसे पढ़ूँगी मैं?
(1986) Peoples Rate This