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विर्सा - ज़ेहरा निगाह कविता - Darsaal

विर्सा

मुड़ कर पीछे देख रही हूँ

क्या क्या कुछ विर्से में मिला था

और क्या कुछ मैं छोड़ रही हूँ

मेरा घर तूफ़ान-ज़दा था

मेरे बुज़ुर्गों ने देखा था

वो इफ़रीत-ए-वक़्त कि जिस ने

उन से सब कुछ छीन लिया था

फिर भी क्या कुछ मुझ को मिला था

चेहरों पर मेहनत की चमक थी

आँखों में ग़ैरत की दमक थी

हाथ में हाथ धरे थे कैसे

ख़ाली हाथ भरे थे कैसे

मिल-जुल कर रहने की रविश थी

ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश थी

ये सब कुछ उस घर से मिला था

वो घर जो इक ख़ाली घर था

मैं ने एक भरे कुम्बे में

अपने हँसते-बसते घर में

ख़ौफ़ का विर्सा छोड़ दिया है

रिश्ता-ए-जुरअत तोड़ दिया है

लहजों में लफ़्ज़ों की बचत है

क़ुर्बत में कितनी वहशत है

अपनी ख़ुशियाँ अपने आँगन

अपने खिलौने अपने दामन

मुड़ कर पीछे देख रही हूँ

क्या क्या कुछ विर्सा में मिला था

और क्या कुछ मैं छोड़ रही हूँ

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Wirsa In Hindi By Famous Poet Zehra Nigaah. Wirsa is written by Zehra Nigaah. Complete Poem Wirsa in Hindi by Zehra Nigaah. Download free Wirsa Poem for Youth in PDF. Wirsa is a Poem on Inspiration for young students. Share Wirsa with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.