शहर के एक कुशादा घर में
शहर के एक कुशादा घर में
अपने अपने काम सँभाले
मैं और एक मिरी तन्हाई
हम दोनों मिल कर रहते हैं
बातें करते रोते हँसते
हर दुख-सुख सहते रहते हैं
आज कि जब सूरज भी नहीं था
फूलों के खिलने का ये मौसम भी नहीं था
और फ़लक पर चाँद के छा जाने का हफ़्ता बीत चुका था
दरवाज़े की घंटी ने वो शोर मचाया
जिस से पूरा घर थर्राया
हम दोनों हैरान हुए कि ऐसा राही कौन रुका है
जो इस घर को अपना घर ही समझ रहा है
खिड़की से बाहर झाँका तो बस इक ख़्वाब सा मंज़र देखा
सूरज भी दहलीज़ पे था
और चाँद किवाड़ की ओट से लिपटा झाँक रहा था
फूल खिले थे
हम ने इस मेहमान को सर आँखों पे बिठाया
दिल में जगह दी
जो अपने हम-राह सभी मौसम ले आया
थकी हुई तन्हाई ने मुझ से
थोड़ी देर को मोहलत माँगी
मैं ने उस को छुट्टी दे दी
साथ में ये ताकीद भी कर दी
देखो कल तुम अपने काम पे जल्दी आना
भूल न जाना
ये राही जो सारे मौसम ले आते हैं
इन के रस्ते सारी दुनिया में जाते हैं
जिस आँगन में चलना सीखें
उस आँगन में रुक नहीं पाते
रुक जाएँ तो थक जाते हैं
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