कल रात ढले
कल रात ढले ये सोचा मैं ने
मैं अपने ख़ज़ाने साफ़ कर लूँ
किस किस का है क़र्ज़ मुझ पे वाजिब
इस का भी ज़रा हिसाब कर लूँ
अलमारी की चाबी खो गई थी
वो ज़ंग भरी पुरानी चाबी
मैं ने उसे कोने कोने ढूँडा
मुझ को तो नहीं मिली कहीं भी
मैं ने जो नज़र उठा के देखा
अलमारी तो बंद ही नहीं थी
मिट्टी की तहों में लिपटे जाले
इक ख़ाक का ढेर लग रहे थे
वो सारी निशानियाँ हमारी
वो सारी कहानियाँ हमारी
शोले की तरह भड़कने वाली
धड़कन की तरह धड़कने वाली
आराम की नींद सो रही थीं
उन में कोई रौशनी नहीं थी
उन में कहीं ज़िंदगी नहीं थी
(1016) Peoples Rate This