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कल रात ढले - ज़ेहरा निगाह कविता - Darsaal

कल रात ढले

कल रात ढले ये सोचा मैं ने

मैं अपने ख़ज़ाने साफ़ कर लूँ

किस किस का है क़र्ज़ मुझ पे वाजिब

इस का भी ज़रा हिसाब कर लूँ

अलमारी की चाबी खो गई थी

वो ज़ंग भरी पुरानी चाबी

मैं ने उसे कोने कोने ढूँडा

मुझ को तो नहीं मिली कहीं भी

मैं ने जो नज़र उठा के देखा

अलमारी तो बंद ही नहीं थी

मिट्टी की तहों में लिपटे जाले

इक ख़ाक का ढेर लग रहे थे

वो सारी निशानियाँ हमारी

वो सारी कहानियाँ हमारी

शोले की तरह भड़कने वाली

धड़कन की तरह धड़कने वाली

आराम की नींद सो रही थीं

उन में कोई रौशनी नहीं थी

उन में कहीं ज़िंदगी नहीं थी

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