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बिल्ली - ज़ेहरा निगाह कविता - Darsaal

बिल्ली

दबे पाँव चलती चली आएगी

किसी गर्म कोने में चुपके से बैठेगी

बिलाैरी आँखें घुमाती रहेगी

कभी एक हल्की जमाही भी लेगी

देखते देखते जिस्म से उठने वाली महक

सारे कमरे में भर जाएगी

दयार-ए-ग़रीबाँ से आया हुआ इक उधेड़ उम्र चूहा

जो बस रिज़्क़ की बू को पहचानता है

जो हर वक़्त बीमार हर वक़्त बेज़ार चूहिया से तंग आ चुका है

उसे देख लेगा तो जी जाएगा

शौक़-ए-वारफ़्तगी तर्ज़-ए-आमादगी

उस को बिल्ली के नज़दीक ले जाएगा

लम्हा-ए-क़ुर्ब में

साअत-ए-वस्ल में

उस हसीना के नाख़ुन निकल आएँगे

उस उधेड़ उम्र चूहे से शोख़ी करेंगे

उसे हाँफता-काँपता अध-मुआ छोड़ कर

फिर से मल्बूस-ए-मख़मल में छुप जाएँगे

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