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आज की बात - ज़ेहरा निगाह कविता - Darsaal

आज की बात

आज की बात नई बात नहीं है ऐसी

जब कभी दिल से कोई गुज़रा है याद आई है

सिर्फ़ दिल ही ने नहीं गोद में ख़ामोशी की

प्यार की बात तो हर लम्हे ने दोहराई है

चुपके चुपके ही चटकने दो इशारों के गुलाब

धीमे धीमे ही सुलगने दो तक़ाज़ों के अलाव!

रफ़्ता रफ़्ता ही छलकने दो अदाओं की शराब

धीरे धीरे ही निगाहों के ख़ज़ाने बिखराओ

बात अच्छी हो तो सब याद किया करते हैं

काम सुलझा हो तो रह रह के ख़याल आता है

दर्द मीठा हो तो रुक रुक के कसक होती है

याद गहरी हो तो थम थम के क़रार आता है

दिल गुज़रगाह है आहिस्ता-ख़िरामी के लिए

तेज़-गामी को जो अपनाओ तो खो जाओगे

इक ज़रा देर ही पलकों को झपक लेने दो

इस क़दर ग़ौर से देखोगे तो सो जाओगे

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