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ये सच है यहाँ शोर ज़ियादा नहीं होता - ज़ेहरा निगाह कविता - Darsaal

ये सच है यहाँ शोर ज़ियादा नहीं होता

ये सच है यहाँ शोर ज़ियादा नहीं होता

घर-बार के बाज़ार मैं पर क्या नहीं होता

जब्र-ए-दिल-ए-बे-मेहर का चर्चा नहीं होता

तारीकी-ए-शब में कोई चेहरा नहीं होता

हर जज़्बा-ए-मासूम की लग जाती है बोली

कहने को ख़रीदार पराया नहीं होता

औरत के ख़ुदा दो हैं हक़ीक़ी ओ मजाज़ी

पर उस के लिए कोई भी अच्छा नहीं होता

शब-भर का तिरा जागना अच्छा नहीं 'ज़ेहरा'

फिर दिन का कोई काम भी पूरा नहीं होता

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