सफ़र ख़ुद-रफ़्तगी का भी अजब अंदाज़ था
सफ़र ख़ुद-रफ़्तगी का भी अजब अंदाज़ था
कहीं पर राह भूले थे न रुक कर दम लिया था
ज़मीं पर गिर रहे थे चाँद तारे जल्दी जल्दी
अंधेरा घर की दीवारों से ऊँचा हो रहा था
चले चलते थे रह-रव एक आवाज़-ए-अख़ी पर
जुनूँ था या फ़ुसूँ था कुछ तो था जो हो रहा था
मैं उस दिन तेरी आमद का नज़ारा सोचती थी
वो दिन जब तेरे जाने के लिए रुकना पड़ा था
इसी हुस्न-ए-तअल्लुक़ पर वरक़ लिखते गए लाख
किरन से रू-ए-गुल तक एक पल का राब्ता था
बहुत दिन ब'अद 'ज़ेहरा' तू ने कुछ ग़ज़लें तो लिख्खीं
न लिखने का किसी से क्या कोई वादा किया था
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