रौनक़ें अब भी किवाड़ों में छुपी लगती हैं
रौनक़ें अब भी किवाड़ों में छुपी लगती हैं
महफ़िलें अब भी उसी तरह सजी लगती हैं
रौशनी अब भी दराज़ों से उमड आती है
खिड़कियाँ अब भी सदाओं से खुली लगती हैं
साअतें जो तिरी क़ुर्बत में गिराँ गुज़री थीं
दूर से देखूँ तो अब वो भी भली लगती हैं
अब भी कुछ लोग सुनाते हैं सुनाए हुए शेर
बातें अब भी तिरी ज़ेहनों में बसी लगती हैं
(1138) Peoples Rate This