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मिडिल-क्लास - ज़ेहरा अलवी कविता - Darsaal

मिडिल-क्लास

तुम्हें मालूम है ना

हमारा सहन छोटा है और उस में चंद ख़्वाब ही ब-मुश्किल पूरे उतरते हैं

इतना खाना जो घर में आए मेहमान पर भी पूरा हो

माँ की दवाएँ वक़्त पर आ जाएँ

बाप को अख़बार रोज़ मिलता रहे

बच्चों को क़द्रे-बेहतर स्कूल में पढ़ा सकें

बहन की शादी हो जाए भाई भी किसी क़ाबिल हो जाए

मैं बाहर जा कर तुम्हारे माँ बाप के लिए भी कुछ करूँगा

वापस जब आउँगा तुम्हें कंगन दिलवा दूँगा

यहीं कहीं कोई छोटी सी दुकान बना लूँगा

सो ये सब पूरा करने को वो बाहर देस चला गया है

उसे रोज़गार मिल गया है सब अच्छा चल रहा है

लेकिन कुछ ख़्वाहिशें हैं ना-तमाम ख़्वाहिशें

कभी इकट्ठे आइसक्रीम खाना

उस के कंधे पर सर रख कर सो जाना

कभी मुस्कुराना कभी रो देना

किसी शाम हल्की फुवार में यूँही उस के संग बाहर निकल जाना

छे साल हो गए हैं

वो दूर देस में है और मैं तन्हा

ख़्वाहिशें हसरत का रूप धार चुकी हैं

मगर मेरे घर का आँगन बहुत छोटा है

मेरी हसरतों की जगह नहीं है उस में

सो मैं बहुत ख़ुश हूँ मुस्कुराती रहती हूँ

शुक्र है सब अच्छा चल रहा है

वो दूर देस गया है

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