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ज़ैतून का दरख़्त - ज़ीशान साहिल कविता - Darsaal

ज़ैतून का दरख़्त

मेरे पास

कोई बाग़ नहीं है दोस्त

कुछ अधूरे ख़्वाब एक बॉलकनी

और दो तीन गमले हैं

जो मुझे दुनिया में दरख़्तों के

बाक़ी रहने की वजूहात बताते हैं

और जंगलों को जला दिए जाने की ख़बरें पहुँचाते हैं

मेरी बहन मेरे कमज़ोर पैरों में

ज़ैतून के तेल से जान डालने की कोशिश करती है

माँ होती तो वो भी यही करती

काश सारी दुनिया में

ज़ैतून के तेल के कुएँ हों

और कमज़ोर पैरों में जान पड़ जाए

और हम अपने प्यारों के साथ

मोहब्बत के बाग़ में रोज़ चहल-क़दमी कर सकें

एक दरख़्त तुम्हारे नाम का भी होगा

मेरे दोस्त

ताकि हम हमेशा मोहब्बत और शिफ़ा-याबी के मोजज़े में

एक दूसरे के शरीक रहें

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