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सूरा-ए-फ़ातिहा - ज़ीशान साहिल कविता - Darsaal

सूरा-ए-फ़ातिहा

एक सूरा-ए-फ़ातिहा

उन लोगों के लिए

जो किसी एक ज़बान में

मोहब्बत की नज़्म नहीं लिख सके

और एक उन लोगों के लिए

जो किसी दूसरी ज़बान में

दीवार पर लिखे हुए नारे न पढ़ सके

उन लोगों के लिए

एक सूरा-ए-फ़ातिहा

जो अजनबी ज़बान में

ज़िंदगी की भीक न माँग सके

जो एक नई ज़बान में सच का मतलब

और आज़ादी का मफ़्हूम न समझ सके

जो किसी एक ज़बान में मोहब्बत की नज़्म

और किसी दूसरी ज़बान में

दीवार पर लिखे हुए नारे न पढ़ सके

और जो अपने दरवाज़े के सामने

अपने दोस्तों के लिए खिले हुए फूल न तोड़ सके

और जो हवा में अपने दुश्मनों की तरफ़

एक पत्थर भी न उछाल सके

और उन सब के लिए

जो किसी की याद में अपनी आँखों का रुख़

किसी के दिल की तरफ़ न कर सके

और उन सब के लिए भी

जिन का रुख़ अपनी बंदूक़ो की तरफ़

और उन की बंदूक़ो का रुख़

उन के हथेलियों की तरफ़ है

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