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शहरी सहूलतें - ज़ीशान साहिल कविता - Darsaal

शहरी सहूलतें

हमारे शहर मैं

जितना ख़ून बहता है

उस से कुछ ज़ियादा पानी

थोड़ी देर के लिए

हमारे घरों में फ़राहम किया जाता है

जितनी बार हम

ऑपरेटर की मदद से

किसी पड़ोसी या दोस्त के लिए

हंगामी इमदाद तलब करते हैं

उस से बहुत ज़ियादा का बिल

हर महीने हमें मौसूल होता है

जितनी देर

ला-वारिस लाशें और ज़ख़्मी

मुर्दा-ख़ाने अस्पताल या सड़क पर

एम्बुलेंस का इंतिज़ार करते हैं

उस से कुछ ज़ियादा देर

हम अपने बचने की दुआएँ माँगते हैं

जितने दिन इंसानी जिस्म

झाड़ियों या मेन-होल में छुपे रहते हैं

उन से कुछ ज़ियादा दिन

हम ख़ौफ़ के आलम में

अपनी दीवार के पीछे

खिड़कियाँ दरवाज़े बंद करते हुए

गुज़ारते हैं

हमारी ख़ामोशी या हमारे चिल्लाने पर

बच्चों की तरह

हमें बहलाया जाता है

पस-मांदगान की तरह

हमें मरने वालों का

मुआवज़ा दिया जाता है

सोगवारों की तरह

हमें दिलासा दिया जाता है

दोस्तों की तरह हमेशा

हमें अपने क़रीब रखा जाता है

दुश्मनों की तरह

एक एक कर के

ख़त्म किया जाता है

मरने वालों की तरह

जन्नत में जगह मिलने की दुआ के साथ

दूसरी लाशों के हम-राह

ऊपर-तले दफ़्न किया जाता है

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