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नौहा - ज़ीशान साहिल कविता - Darsaal

नौहा

कितना मातम करूँ

अपने दिल के उस हिस्से का

जो तुम्हारे पास रह गया

कितना सोग मनाऊँ

अपनी आँखों की उस चमक का

जो तुम्हारे आँसुओं

तुम्हारी मुस्कुराहट में फीकी पड़ गई

अपनी ज़िंदगी को

कैसे बाहर निकालूँ

उस क़ब्र से जो मैं ने नहीं खोदी

अपनी मोहब्बत को कैसे वापस लाऊँ

उस रास्ते से जो मैं ने नहीं बनाया

किस तरह देख पाऊँगा

उन चीज़ों को

जिन को तुम ने देखा

तुम ने देखा

किस तरह गुज़रता हूँ

मैं उन चीज़ों के दरमियान से

जिन के दरमियान से

अब तुम गुज़र नहीं सकोगी

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