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लफ़्ज़ - ज़ीशान साहिल कविता - Darsaal

लफ़्ज़

जब लफ़्ज़ चलना चाहते हैं

चलते हैं और दूसरे लफ़्ज़ों के

पीछे चलना शुरूअ कर देते हैं

एक के पीछे एक

लफ़्ज़ चलते रहते हैं

लफ़्ज़ एक-दूसरे के पीछे

पागलों की तरह नहीं दौड़ते

लफ़्ज़ आहिस्ता आहिस्ता चलते हैं

अपने चलने के दौरान लफ़्ज़

एक-दूसरे पर मिट्टी नहीं उछालते

एक-दूसरे पर पानी नहीं फेंकते

लफ़्ज़ दूसरे लफ़्ज़ों को कीचड़ में नहीं गिराते

लफ़्ज़

दूसरे छोटे छोटे लफ़्ज़ों को

धक्के नहीं देते

आगे जाने वाले लफ़्ज़

पीछे आने वाले लफ़्ज़ों का

रास्ता नहीं रोकते

ख़ाली हाथ

लफ़्ज़ चलते चले जाते हैं

उन के पास अख़रोट की लकड़ी से बनी

लोहे के दस्ते वाली कोई छड़ी नहीं होती

न ही कोई बंदूक़

लफ़्ज़ लफ़्ज़ों को

बहुत ज़ियादा डराते नहीं

लफ़्ज़ दूसरे लफ़्ज़ों को सहारा देते हैं

ज़िंदा रखते हैं

लफ़्ज़ किसी लफ़्ज़ को

आदमी की तरह

अंधेरे में ले जा कर

उस का गला नहीं घोंटते

वो एक दूसरे को रौशनी में रख कर

हमेशा अपनी अपनी आवाज़ बुलंद करते हुए

आगे बढ़ते रहते हैं

चलते रही रहते हैं

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