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ख़ुद-कुशी - ज़ीशान साहिल कविता - Darsaal

ख़ुद-कुशी

एक ऐसे सर्वे के मुताबिक़

जो मेरे दोस्त

अपने दिल को मौसूल होने वाली

ग़ैर-ज़रूरी ख़बरों को जम्अ कर के

मुरत्तब कर रहे हैं

शहर में कोई ख़ुद-कुशी नहीं कर रहा

मोहब्बत में नाकामी पर फ़ीनाइल पीने वाली लड़कियाँ

और नौकरी न मिलने पर

बड़े भाई के लाइसेंस-याफ़ता पिस्तौल से

ख़ुद-कुशी करने वाले लड़के

बहुत दिन से नज़र नहीं आए

दुपट्टे का फंदा बना कर मर जाने वाली

बे-औलाद दुल्हनें

और तवील बीमारी से तंग आ कर

ख़ुद को जला कर हलाक करने वाले

उधेड़-उम्र मरीज़

नापैद हो गए हैं

शहर में अब जिस को भी ख़ुद-कुशी करनी हो

उसे बहुत ज़ियादा तग-ओ-दौ नहीं करनी पड़ती

वो बाहर निकलता है

और थोड़ी देर के लिए

निशाना-बाज़ों वाली येलो कैब का

इंतिज़ार करता है

या जब उस की सड़क के दोनों तरफ़

ख़ूब फायरिंग हो रही हो

वो बिला-इरादा बॉलकनी में जा के खड़ा हो जाता है

जब लोग ख़ुद-कुशी करना चाहते हैं

यक़ीन कीजिए

किसी जिंसी इम्तियाज़ के बग़ैर

रंग, नस्ल और ज़बान के फ़र्क़ को ख़ातिर में न लाते हुए

गोलियाँ हर जगह

उन्हें ढूँढ निकालती हैं

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