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घूमते हुए ग्लोब पर - ज़ीशान साहिल कविता - Darsaal

घूमते हुए ग्लोब पर

घूमते हुए ग्लोब पर

हम अपने पाँव जमाने की कोशिश करते हैं

और गिर पड़ते हैं दुनिया के किसी और हिस्से में

और फिर वहीं से अपनी कोशिश दोबारा शुरूअ कर देते हैं

और फिर कहीं और से, और फिर

हम एक ऐसी जंग लड़ रहे हैं

जिस में दुश्मन को जीतने के लिए लड़ने की भी ज़रूरत नहीं

हमें मालूम है अपनी शिकस्त के बारे में

और हमें मालूम है घूमते हुए ग्लोब पर

भूरे पहाड़, हरे जंगल और नीला पानी मौजूद है

ग्लोब के साथ घूमते हुए

मैं जब तुम तक पहुँचता हूँ

तुम दूसरी तरफ़ चली जाती हो

जब हमारी तरफ़ दिन होता है

तुम्हारे हिस्से में रात आ जाती है

और जब तुम्हारे हिस्से में दिन होता है

तो रात हमारा मुक़द्दर होती है

घूमते हुए ग्लोब पर

मैं उस हिस्से तक पहुँचना चाहता हूँ

जो ग्लोब के साथ नहीं घूमता

और जहाँ से हम ग्लोब को घूमता हुआ

देख सकते हैं

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