गड़ही मेरा
मैं था और फूल थे इक गोशा-ए-तन्हाई में
हम से कुछ दूर परिंदे भी थे गहराई में
नील-गूँ आसमाँ शफ़्फ़ाफ़ नज़र आता था
बहता पानी भी बहुत साफ़ नज़र आता था
धूप थी तेज़ मगर दिल को भली लगती थी
वादी-ए-सब्ज़ मोहब्बत की गली लगती थी
चादरें ओढ़े हुए लड़कियाँ हैरान सी थीं
मेरे हम-राह वो इक ख़्वाब-ए-परेशान सी थीं
बात करते हुए हँसते हुए डर जाती थीं
सुर्ख़ फूलों के सिमटने पे बिखर जाती थीं
जिस्म से दिल के तअल्लुक़ का हवाला भी न था
खोई चीज़ों को कोई ढूँडने वाला भी न था
हर तरफ़ गुज़रे हुए वक़्त की ख़ामोशी थी
याद इक याद न थी सिर्फ़ फ़रामोशी थी
ख़त्म होती हुई इक शाम अधूरी थी बहुत
ज़िंदगी से ये मुलाक़ात ज़रूरी थी बहुत
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