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गड़ही मेरा - ज़ीशान साहिल कविता - Darsaal

गड़ही मेरा

मैं था और फूल थे इक गोशा-ए-तन्हाई में

हम से कुछ दूर परिंदे भी थे गहराई में

नील-गूँ आसमाँ शफ़्फ़ाफ़ नज़र आता था

बहता पानी भी बहुत साफ़ नज़र आता था

धूप थी तेज़ मगर दिल को भली लगती थी

वादी-ए-सब्ज़ मोहब्बत की गली लगती थी

चादरें ओढ़े हुए लड़कियाँ हैरान सी थीं

मेरे हम-राह वो इक ख़्वाब-ए-परेशान सी थीं

बात करते हुए हँसते हुए डर जाती थीं

सुर्ख़ फूलों के सिमटने पे बिखर जाती थीं

जिस्म से दिल के तअल्लुक़ का हवाला भी न था

खोई चीज़ों को कोई ढूँडने वाला भी न था

हर तरफ़ गुज़रे हुए वक़्त की ख़ामोशी थी

याद इक याद न थी सिर्फ़ फ़रामोशी थी

ख़त्म होती हुई इक शाम अधूरी थी बहुत

ज़िंदगी से ये मुलाक़ात ज़रूरी थी बहुत

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