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दूसरा आसमान - ज़ीशान साहिल कविता - Darsaal

दूसरा आसमान

पहले दिन बादल ज़ख़्मी हो गए

दूसरे दिन सितारे

और तीसरे दिन

बहुत सी गोलियाँ नीले आसमान को जा लगीं

और वो सियाह हो गया

आँसुओं की तरह कोई चीज़

ज़मीन पर गिरने लगी

कभी ख़ामोशी के साथ बहुत सारी बूँदें

और कभी सड़क पर शोर मचाता हुआ

मोसलाधार पानी

ज़ख़्मी आसमान

बुरी तरह रो रहा था

उस ने अपना चेहरा

बहुत सारे बादलों से ढका हुआ था

हम उसे हँसाने की कोशिश में बाहर निकलते

तो बारिश और तेज़ हो जाती

सियाह और मटियाली कीचड़ अपने जूतों में लगाए

हम फिर घर में आ जाते

आसमान के आँसू

क़ालीन में जज़्ब हो जाते

या हमारे कपड़ों के साथ सारे घर में फैल जाते

पक्के फ़र्श पर हमारे कीचड़ भरे पैरों के निशान

आसमान के ज़ख़्मों की तरह

कभी हल्के और कभी गहरे हो जाते

आसमान की तरफ़ जाने वाली दुआएँ

तेज़ बारिश के साथ वापस आ कर

गीली मिट्टी में ग़ाएब हो जातीं

छोटी छोटी छतरियाँ

आसमान की या हमारी क़िस्मत के लिए ना-काफ़ी थीं

ऐसे मौसम में थोड़ी देर के लिए

अगर वो फ़ाइरिंग बंद कर देते

तो शायद हमारी तरह

आसमान भी अच्छा हो जाता

पहले से ज़ियादा नीला और चमकदार

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