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मैं उस की अंजुमन में अकेला नहीं गया - ज़ीशान साहिल कविता - Darsaal

मैं उस की अंजुमन में अकेला नहीं गया

मैं उस की अंजुमन में अकेला नहीं गया

जो मैं गया तो फिर कोई तन्हा नहीं गया

मैं चाहता था उस की निगाहों से खेलना

लेकिन ज़रा सी देर भी खेला नहीं गया

मुमकिन नहीं था हुस्न ओ नज़र का मुवाज़ना

मुझ से तो उस को ठीक से देखा नहीं गया

तहवील में किसी की पहुँच के है ख़ुश वो दिल

जिस को किसी मक़ाम पर रक्खा नहीं गया

दोनों तरफ़ थी एक शिकायत लिखी हुई

चाहा कभी गया कभी चाहा नहीं गया

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