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किस क़दर महदूद कर देता है ग़म इंसान को - ज़ीशान साहिल कविता - Darsaal

किस क़दर महदूद कर देता है ग़म इंसान को

किस क़दर महदूद कर देता है ग़म इंसान को

ख़त्म कर देता है हर उम्मीद हर इम्कान को

गीत गाता भी नहीं घर को सजाता भी नहीं

और बदलता भी नहीं वो साज़ को सामान को

इतने बरसों की रियाज़त से जो क़ाएम हो सका

आप से ख़तरा बहुत है मेरे इस ईमान को

कोई रुकता ही नहीं इस की तसल्ली के लिए

देखता रहता है दिल हर अजनबी मेहमान को

अब तो ये शायद किसी भी काम आ सकता नहीं

आप ही ले जाइए मेरे दिल-ए-नादान को

शहर वालों को तो जैसे कुछ पता चलता नहीं

रोकता रहता है साहिल रोज़-ओ-शब तूफ़ान को

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