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तमन्नाएँ अज़िय्यत का नज़ारा हम न कहते थे - ज़ीशान साजिद कविता - Darsaal

तमन्नाएँ अज़िय्यत का नज़ारा हम न कहते थे

तमन्नाएँ अज़िय्यत का नज़ारा हम न कहते थे

ख़सारा है ख़सारा ही ख़सारा हम न कहते थे

तुम्हारी इंतिहाएँ अंत पर बे-सूद निकली हैं

समुंदर जितना गहरा उतना खारा हम न कहते थे

न तू बंदों से है राज़ी न बंदे तुझ से राज़ी हैं

ख़ुदाई रोग है परवरदिगारा हम न कहते थे

ये मैदान-ए-तग-ओ-दौ है मशक़्क़त ही मशक़्क़त है

वही जीतेगा जो सौ बार हारा हम न कहते थे

ग़ुलामी को तो आज़ादी समझते हैं यहाँ इंसाँ

ये हथकड़ियों में कर लेंगे गुज़ारा हम न कहते थे

चुना था तू ने जो रस्ता उसे हम तर्क कर आए

सियानों को है काफ़ी इक इशारा हम न कहते थे

सभी ने अपने तिनके भी बिल-आख़िर ख़ुद उठाए हैं

नहीं होगा यहाँ कोई सहारा हम न कहते थे

न 'ज़ीशान' आगही पूरी हुई उम्रें हुईं पूरी

न होगा इल्म का कोई किनारा हम न कहते थे

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