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कब तक वो मोहब्बत को निभाता नज़र आता - ज़ीशान साजिद कविता - Darsaal

कब तक वो मोहब्बत को निभाता नज़र आता

कब तक वो मोहब्बत को निभाता नज़र आता

अब मैं भी नहीं जान से जाता नज़र आता

तुम तो मिरी हर सम्त हवाओं की तरह हो

मौसम कोई फ़ुर्क़त का जो आता नज़र आता

है रौशनी इतनी कि दिखाई ही न कुछ दे

वर्ना हमें इस ताक़ में दाता नज़र आता

चलती ज़रा तेज़ी से हवा तो मैं पतंगें

कुछ और बुलंदी पे उड़ाता नज़र आता

मंज़र में तजस्सुस है न जादू न कशिश है

होते तो ये वो ख़्वाब दिखाता नज़र आता

मैं वक़्त की सूई से बँधा रहता हूँ वर्ना

सहरा में बहुत रेत उड़ाता नज़र आता

आओ ज़रा इस सम्त से देखो वो ज़मीं है

हर एक है दूजे को मिटाता नज़र आता

'ज़ीशान' बुतों में जो कोई ज़िंदगी होती

मैं सब से ज़बरदस्त बनाता नज़र आता

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