कब तक वो मोहब्बत को निभाता नज़र आता
कब तक वो मोहब्बत को निभाता नज़र आता
अब मैं भी नहीं जान से जाता नज़र आता
तुम तो मिरी हर सम्त हवाओं की तरह हो
मौसम कोई फ़ुर्क़त का जो आता नज़र आता
है रौशनी इतनी कि दिखाई ही न कुछ दे
वर्ना हमें इस ताक़ में दाता नज़र आता
चलती ज़रा तेज़ी से हवा तो मैं पतंगें
कुछ और बुलंदी पे उड़ाता नज़र आता
मंज़र में तजस्सुस है न जादू न कशिश है
होते तो ये वो ख़्वाब दिखाता नज़र आता
मैं वक़्त की सूई से बँधा रहता हूँ वर्ना
सहरा में बहुत रेत उड़ाता नज़र आता
आओ ज़रा इस सम्त से देखो वो ज़मीं है
हर एक है दूजे को मिटाता नज़र आता
'ज़ीशान' बुतों में जो कोई ज़िंदगी होती
मैं सब से ज़बरदस्त बनाता नज़र आता
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