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जल-परी है तो वो तस्ख़ीर भी हो सकती है - ज़ीशान साजिद कविता - Darsaal

जल-परी है तो वो तस्ख़ीर भी हो सकती है

जल-परी है तो वो तस्ख़ीर भी हो सकती है

ख़्वाब होता है तो ता'बीर भी हो सकती है

ज़िंदगी को ज़रा शतरंज समझ कर देखो

मेरे झुक जाने में तदबीर भी हो सकती है

मसअले मुझ को मिटाने ही का सामान नहीं

मसअलों से मिरी ता'मीर भी हो सकती है

यार मा'लूम हुआ है कि ख़ला ख़ाली नहीं

रात आईने में तस्वीर भी हो सकती है

ज़िंदगी फ़िल्म नहीं जिस का हो अंजाम हसीं

सूरत-ए-हाल ये गम्भीर भी हो सकती है

इस से बेहतर है कि हम सामने लाएँ उल्फ़त

कुछ नहीं होने की तश्हीर भी हो सकती है

ज़िम्मेदारी भी दफ़ातिर में तरक़्क़ी से बढ़े

आप की टाई तो ज़ंजीर भी हो सकती है

सारे जाले हैं वजूहात के जाले लेकिन

ये जो मकड़ी है ये तक़दीर भी हो सकती है

वक़्त के साथ निखर जाता है तख़्लीक़ का फ़न

शाम-ए-'ज़ीशान' शब-ए-'मीर' भी हो सकती है

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