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हैं काम-काज इतने बदन से लिपट गए - ज़ीशान साजिद कविता - Darsaal

हैं काम-काज इतने बदन से लिपट गए

हैं काम-काज इतने बदन से लिपट गए

लोगों के शहर-भर से रवाबित ही कट गए

मंज़र थे दूर दूर तो कितने हसीन थे

तस्वीर ज़ूम की है तो पिक्सल ही फट गए

चेहरे झुलस चुके हैं तमाशा-ए-इश्क़ में

ऐ इश्क़ किस तरह तिरे मेआ'र घट गए

मैं ख़्वाब ख़ामुशी मिरा साया हुए हैं जम्अ'

जब लोग अपने अपने गिरोहों में बट गए

क़ुदरत का कैनवस न मुकम्मल दिखाई दे

कितने ही रंग मेरी निगाहों से हट गए

इक ज़हर है समाज के अंदर भरा हुआ

इतनी समोग है कि तनफ़्फ़ुस उलट गए

आँखें भुला चुकी हैं ख़द-ओ-ख़ाल-ए-रौशनी

बादल तो आसमान से कब के हैं छट गए

'ज़ीशान' उसे ख़याल में रक्खा था मुस्तक़िल

आहिस्तगी से बाक़ी ख़यालात हट गए

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