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पेच दे ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं न कहीं - ज़ेबा कविता - Darsaal

पेच दे ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं न कहीं

पेच दे ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं न कहीं

ख़ुद उलझ जाओ ऐ हसीं न कहीं

कभी घबराते हैं तो कहते हैं

कोई बेताब है कहीं न कहीं

बहुत इसरार वस्ल पर नहीं ख़ूब

मुँह से कह दें वो फिर नहीं न कहीं

ज़िक्र जिस ग़मज़दे का होता है

दिल ये कहता है हों हमीं न कहीं

सज्दे करते हैं लोग देर में भी

वाँ भी ऐ यार हों हमीं न कहीं

नाज़ उठाता है नाज़नीनों के

दिल भी हो जाए नाज़नीं न कहीं

सुनते हैं अर्श है रफ़ी बहुत

कोई जानाँ की हो ज़मीं न कहीं

कह रही है फ़सुर्दगी उन की

मर गया है कोई कहीं न कहीं

दिल मिरा ले गए तो हैं ख़ुश ख़ुश

हों जो मेरी तरह हज़ीं न कहीं

आसमाँ जिस को लोग कहते हैं

कोई क़ातिल की हो ज़मीं न कहीं

मुज़्तरिब बे-सबब नहीं 'ज़ेबा'

दिल लगा है मगर कहीं न कहीं

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