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क्या मिला क़ैस को गर्द-ए-रह-ए-सहरा हो कर - ज़ेबा कविता - Darsaal

क्या मिला क़ैस को गर्द-ए-रह-ए-सहरा हो कर

क्या मिला क़ैस को गर्द-ए-रह-ए-सहरा हो कर

रह गया होता ग़ुबार-ए-दर-ए-लैला हो कर

याद आते हैं चमन में जो किसी के आरिज़

गुल खटकते हैं मिरी आँखों में काँटा हो कर

पहले क्या था जो किया करते थे तारीफ़ मिरी

अब हुआ क्या जो बुरा हो गया अच्छा हो कर

दिल में रख गर्द-ए-कुदूरत न बहुत ऐ कम-बीं

कहीं रह जाए न ये आइना अंधा हो कर

हिज्र में याद-ए-मिज़ा और भी तड़पाती है

क़ल्ब-ए-बिस्मिल में खटकती है ये काँटा हो कर

नाला-ए-गर्म ने तासीर अजब दिखलाई

रह गया मिस्ल-ए-चराग़ आप में ठंडा हो कर

यार के रुख़ की सबाहत का तसव्वुर शब-ए-हिज्र

आया तस्कीं को मिरी नूर का तड़का हो कर

दिल से कहता है ग़म-ए-उल्फ़त-ए-जानाँ दम-ए-मर्ग

तुम तो दुनिया से चले मैं रहूँ किस का हो कर

छोड़ना ऐ ग़म-ए-उल्फ़त न कभी साथ उस का

कहीं घबराए मिरा दिल न अकेला हो कर

आए तो वस्ल का दिन हो तो कहीं बोस-ओ-कनार

सब निकल जाएगी शर्म उन की पसीना हो कर

जिस्म-ए-अनवर की लताफ़त की सना क्या कीजे

जामा-ए-यार न उतरा कभी मैला हो कर

दहर की देखते हैं पस्त-ओ-बुलंद ऐ 'ज़ेबा'

कर्बला जाएँगे इस वास्ते बतहा हो कर

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