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ऐसी तश्बीह फ़क़त हुस्न की बदनामी है - ज़ेबा कविता - Darsaal

ऐसी तश्बीह फ़क़त हुस्न की बदनामी है

ऐसी तश्बीह फ़क़त हुस्न की बदनामी है

माह आरिज़ को लिखा ख़ामे की ये ख़ामी है

रंग ये उन की सबाहत ने अजब दिखलाया

सुर्ख़ जोड़े पे गुमाँ होता है बादामी है

कहते फिरते हो बुरा मुझ को ये बात अच्छी नहीं

मेरी रुस्वाई में साहब की भी बदनामी है

आप की बातों से दिल पक गया जब कहता हूँ मैं

हँस के कहते हैं ये उल्फ़त की फ़क़त ख़ामी है

चूमता है कोई आँखों से लगाता है कोई

है लिबास आप का या जामा-ए-एहरामी है

नहीं डगने का क़दम राह-ए-वफ़ा से अपना

जो सितम चाहो करो सब्र मिरा हामी है

आप की इश्क़ की ईज़ा में है लुत्फ़ ओ राहत

आप पर ख़त्म मिरी जान दिल-आरामी है

हम अकेले नहीं रहते शब-ए-तन्हाई में

यास-ओ-अंदोह-ओ-ग़म ओ हसरत-ओ-नाकामी है

दिल को अबरू हैं पसंद आँख को चश्म-ए-मय-गूँ

कोई दुनिया में हिलाली है कोई जामी है

लौह-ए-क़ुरआँ जो कहा उन की जबीं को 'ज़ेबा'

इस में कुछ शक नहीं तश्बीह ये इल्हामी है

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