सूरज ने इक नज़र मिरे ज़ख़्मों पे डाल के
सूरज ने इक नज़र मिरे ज़ख़्मों पे डाल के
देखा है मुझ को खिड़की से फिर सर निकाल के
रखते ही पाँव घूमती चकराती राह ने
फेंका है मुझ को दूर ख़ला में उछाल के
क्या ख़्वाहिशें ज़मीन के नीचे दबी रहीं
ग़ारों से कुछ मुजस्समे निकले विसाल के
छन छन के आ रही हो गुफाओं में रौशनी
तन पर वही लिबास हों पेड़ों की छाल के
रंगों की रौ है 'ज़ेब' कि गर्दिश में है मुदाम
बे-शक्ल-ओ-जिस्म उभरे हैं पैकर ख़याल के
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