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नक़्श-ए-तस्वीर न वो संग का पैकर कोई - ज़ेब ग़ौरी कविता - Darsaal

नक़्श-ए-तस्वीर न वो संग का पैकर कोई

नक़्श-ए-तस्वीर न वो संग का पैकर कोई

उस को जब देखो बदल जाता है मंज़र कोई

कशिश-ए-हर्फ़-ए-तबस्सुम है लबों में रू-पोश

गोशा-ए-चशम से हँसता है सितमगर कोई

जुर्रा-ए-आख़िर-ए-मय है कि गिराँ-ख़्वाबी-ए-शब

चाँद सा डूब रहा है मिरे अंदर कोई

चढ़ते दरिया सा वो पैकर वो घटा से गेसू

रास्ता देख रहा है मिरा मंज़र कोई

सदफ़-ए-बहर से निकली है अभी लैला-ए-शब

अपनी मुट्ठी में छुपाए हुए गौहर कोई

खो गया फिर कहीं अफ़्लाक की पहनाई में

देर तक चमका किया टूटा हुआ पर कोई

सफ़-ए-आदा है मिरे सामने और पुश्त पे हैं

न फ़रिश्ते न अबाबीलों का लश्कर कोई

टूट कर गिरती है ऊपर मिरे चट्टान कि है

बैअत-ए-संग मिरे दस्त-ए-हुनर पर कोई

रात भर ताक़त-ए-परवाज़ उगाती है उन्हें

काट देता है सहर-दम मिरे शहपर कोई

मेरे क़ातिल ने बढ़ा दी मिरे सच की तौक़ीर

इस सिले के लिए मौज़ूँ था पयम्बर कोई

आज इस क़र्या-ए-वीराँ में ये आहट कैसी

दिल के अंदर है कोई और न बाहर कोई

किसी झाड़ी से किरन छूटी है सूरज की कि 'ज़ेब'

चमक उट्ठा है किसी हाथ में ख़ंजर कोई

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