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मौज-ए-रेग सराब-सहरा कैसे बनती है - ज़ेब ग़ौरी कविता - Darsaal

मौज-ए-रेग सराब-सहरा कैसे बनती है

मौज-ए-रेग सराब-सहरा कैसे बनती है

बहता हुआ आईना-ए-दरिया कैसे बनती है

खिल के कली चुप क्यूँ रहती है शाख़-ए-ज़र-अफ़शाँ पर

फिर ये चहकती कोकती चिड़िया कैसे बनती है

बाहर के मंज़र भी हसीं क्यूँ लगने लगते हैं

दिल की लहर इक कैफ़-ए-सरापा कैसे बनती है

आँसू से कितना गहरा है मिट्टी का रिश्ता

दुनिया फिर ग़म से बेगाना कैसे बनती है

उड़ते हुए पत्तों की सदा ये शोर हवाओं का

जंगल की ये फ़ज़ा सन्नाटा कैसे बनती है

मैं तो चाक पे कूज़ा-गर के हाथ की मिट्टी हूँ

अब ये मिट्टी देख खिलौना कैसे बनती है

बह गया मेरा घरौंदा तो इक रेले ही में 'ज़ेब'

पानी पर क़ाएम ये दुनिया कैसे बनती है

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